जय! जय! जय! जय! पास जिणंदा…

(राग : मालकौंसादि…/जय जय अारति…/दीवो रे दीवो प्रभु…)

जय! जय! जय! जय! पास जिणंदा…!
अंतरीक्षप्रभु! त्रिभुवनतारण, भविक कमल-उल्लास दिणंदा… जय0।।1।।

तेरे चरण शरण में कीनो, तुम बिन कोन तोडे भवफंदा;
परमपुरुष परमारथदर्शी, तुं दीये भविककुं परमानंदा… जय0।।2।।

तुं नायक तुं शिवसुखदायक, तुं हितचिंतक तुं सुखकंदा;
तुं जनरंजन तुं भवभंजन, तुं केवल कमला-गोविंदा… जय0।।3।।

कोडिदेव मिलके कर न शके, एक अंगूष्ठ रुप प्रतिछंदा;
एैसो अद्भुत रुप तिहारो, वरसत मानुं अमृत के बुंदा… जय0।।4।।

मेरे मन मधुकर के मोहन, तुम हो विमल सदल अरविंदा;
नयन चकोर विलास करत है, देखत तुम मुख पूनमचंदा… जय0।।5।।

दूर जावे प्रभु! तुम दरिशन से, दु:ख दोहग दारिद्र अघदंदा;
‘वाचक जश’ कहे सहस फलत है, जे बोले तुम गुण के वृंदा… जय0।।6।।

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