
छट्ठा भव वज्रनाभ राजा और कुरंगक भील
बारहवें देवलोक का आयुष्य पूर्ण होने के बाद मरुभूति का जीव पश्चिम महाविदेह की सुगंधि विजय में स्थित शुभंकरा नगरी में वज्रवीर्य राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम वज्रनाभ रखा गया। युवावस्था में विजया नामक राजकुमारी के साथ उसका विवाह किया गया। वर्षों बाद उसे एक पुत्र हुआ, जिसका नाम चक्रायुध रखा गया।
एक बार क्षेमंकर नामक तीर्थंकर परमात्मा विचरण करते हुए वहाँ आए, राजा वज्रनाभ समवसरण में देशना सुनने गया। प्रभु की मधुर वाणी सुनकर वज्रनाभ के हृदय में वैराग्यभाव जाग्रत हुआ।
राजमहल में आकर पुत्र आदि को समझाकर चक्रायुध का राज्याभिषेक किया। उसके बाद ज्ञानगर्भित वैराग्य से वज्रनाभ ने तीर्थंकर क्षेमंकर प्रभु के पास संयम स्वीकार किया। तीर्थंकर प्रभु के पास विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने हेतु आत्मसाधना में तत्पर वज्रनाभ मुनि गीतार्थ ज्ञानी बन गए। प्रभु ने उसे स्वतन्त्र रूप से विहार करने की आज्ञा प्रदान की। वे आकाशगामिनी विद्या के प्रभाव से सुकच्छ विजय में गए और पहाड़ों में विचरण करने लगे।
कमठ का जीव नरक का आयुष्य पूर्ण कर तथा पशु योनि के छोटे-छोटे भव में भ्रमण करते हुए सुकच्छ विजय में कुरंगक नामक भील के रूप में जन्म लिया। पाप के उदय के कारण उसने अशुभ कुल में जन्म लिया। अतः उसे जन्म से तो शुभ संस्कार नहीं मिले, परन्तु बडे होने के बाद भी सुसंस्कार का कोई निमित्त नहीं मिला। अतः कुसंस्कार बढ़ते ही गए। ऐसे कुल में सुसंस्कार कहाँ से मिले? जंगल में भटकना, शिकार खेलना, मांसाहार करना आदि दोषों में उस भील का चित्त लिप्त हो गया।
एक दिन कुरंगक भील ने जंगल में मुनि वज्रनाभ को देखा। पूर्वभव के द्वेष के कारण मुनि को देखते ही उसकी आँखों में वैर की आग भड़क उठी। उसने धनुष पर तीर चढ़ाया और मुनि की छाती का निशान लेकर तीर छोड़ा। तीर लगते ही उनकी छाती से रक्त का फव्वारा निकल पड़ा। वे ‘‘नमो अरिहंताणं’’ का उच्चारण करते हुए परमात्मा के ध्यान में लीन होकर समता भाव में जमीन पर गिर पड़े।
वज्रनाभ मुनि का जन्म सुगन्धि विजय में हुआ था और उन्होंने दीक्षा भी वहीं ली थी, परन्तु उनके कर्म उन्हें साधना के लिए सुकच्छ विजय में ले गया और भील का संयोग करा दिया। कहा गया है इसीलिए ‘‘रे कर्म ! तेरी गति न्यारी…’’
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