
नौवा भव दसवें प्राणत में देव और चौथे पृथ्वी में नारक
मरुभूति का जीव सुवर्णबाहु कालधर्म प्राप्त कर दसवें देवलोक में बीस सागरोपम आयुष्य वाले देव हुए। मरुभूति के जीवने मनुष्यभव में धार्मिक संस्कार व सम्यग्दर्शन को दृढ किया था, अतः वहाँ भी उनके अन्दर सुसंस्कार तथा सम्यग्दर्शन जैसे गुण विद्यमान रहे। देवभव में मरुभूति के जीव ने 5 भरत और 5 ऐरवत के तीर्थंकरों के 500 कल्याणकों की आराधना स्वयं की और दूसरों से करवाई, क्योंकि ‘सम्यग्दर्शन’ होने के कारण तीर्थंकर परमात्मा की आत्मा तीर्थंकर भगवान के कल्याणक का आयोजन करते हैं। विमलनाथ भगवान के शासन से पूर्व मरुभूति का जीव देवलोक में गया था। अतः विमलनाथ भगवान से नेमिनाथ भगवान तक 10 तीर्थंकर भगवान के पाँच-पाँच कल्याणक होने के कारण 50 कल्याणक और उन 50 के 5 भरत + 5 ऐरवत = 10 क्षेत्रों से गुणन करने से मरुभूति के जीव देव द्वारा 500 कल्याणकों की आराधना हुई। अतः उपाध्याय वीरविजयजी महाराज ने पंचकल्याणक की पूजा की ढाल में कहा है – ‘‘क्षेत्र दस जिनवर पाँचवे उत्सव करतां सुर साथे रे….’’।
इस प्रकार महावीर प्रभु के जीव ने भी देवभव में 550 कल्याणक की आराधना की है, क्यों कि विमलनाथ भगवान के कल्याणक के समय दोनों भगवान के जीव एक ही देवलोक में 20 सागरोपम आयुस्थिति वालें देव थे और विमलनाथ भगवान से पार्श्वनाथ भगवान का साधिक 16 सागरोपम का अन्तर हैं। अतः वीर प्रभु के जीव ने विमलनाथ से पार्श्वनाथ भगवान तक 11 तीर्थंकरों की आराधना की है। अतः 11 ु 5 = 55 के अनुसार 10 क्षेत्रों से गुणन करने से 550 कल्याणक की आराधना की है।
देवलोक में से देव हुए पार्श्वप्रभु ने पूर्वभव में अपनी भावी मातुश्री का मुख देखने के लिए वाराणसी नगर में वे देव बालक का रुप धारण करके आएँ थे। वहाँ भावी माता वामादेवी को सुलक्षणा तथा जिनभक्त देखकर आनन्द को प्राप्त हुए। अतः पंचकल्याणक पूजा में कहा गया है- ‘‘बालरूपे सुर तिहां, जननी मुख जोवतां, श्री शुभवीर आनन्द पामे…’’।
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