
पार्श्वप्रभु का प्रथम भव मरुभूति और कमठ
भरतक्षेत्र में पोतनपुर नामक नगर था। वहाँ राजा अरविन्द राज्य करता था। विश्वभूति नामका उसका पुरोहित था, तथा पुरोहित की पत्नी का नाम अनुद्धरा था। राजा के वफादारों में विश्वभूति का महत्वपूर्ण स्थान था। उसके दो पुत्र थे एक कमठ व दूसरा मरुभूति।
विश्वभूति स्वयं सदाचारी, गुणवान तथा बुद्धिमान था। अतः अपने दोनों पुत्रों में भी संस्कार के सिंचन का प्रयत्न करता था। ‘‘निमित्त समान होते हुए भी उपादान आत्मा की योग्यता के अनुसार मानव संस्कार आदि प्राप्त करता है।’’ जिस प्रकार एक ही भूमि में समान पानी, खाद आदि मिलने के बावजूद कोई जीव कांटा के रूप में पनपता है तो कोई गुलाब के रूप में…. बस इसी तरह विश्वभूति की प्रेरणा से मरुभूति संस्कारवान, गुणवान तथा चरित्रवान व्यक्ति बना, क्यों कि उसके कर्म हल्के थे, जिससे उसमें विशिष्ट गुण प्रगट हुए, परन्तु कर्म भारी होने के कारण कमठ कुसंस्कारयुक्त तथा दुराचारी बना।
युवावस्था प्राप्त होने के बाद विश्वभूति ने कमठ का विवाह अरुणा के साथ कर दिया, यह सोचकर कि विवाह होने के बाद वह अपने बुरे आचरणों का त्याग कर देंगा, परन्तु कुत्ते की पूँछ तो टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है। अतः किसी भी तरह से वह सुधर नहीं सका। मरुभूति का विवाह वसुन्धरा के साथ किया गया। उसके बाद माता-पिता की समाधि मृत्यु हुई और वे स्वर्गवासी बने।
अरविन्द राजा ने उम्र में बड़े होने के कारण राजपुरोहित पद कमठ को दिया। फिर भी वह दोषों से मुक्त न हो सका। दूसरी ओर कार्य की दक्षता देखकर राजा मरुभूति के प्रति आकर्षित हो गया। वह राजा का प्रियपात्र बन गया। माता-पिता का छत्र चले जाने के कारण कमठ अधिक उच्छृंखल हो गया।
एक बार हरिश्चन्द्र नामक मुनिराजश्री पोतनपुर में पधारे। मरुभूति ने उनके साथ सत्संग किया। जिस प्रकार कोयल को आम्रवृक्ष पसन्द पडता है, उसी प्रकार सदाचारी व्यक्ति को सत्संग अच्छा लगता है। मुनिराजश्री ने विषय-वैराग्य, कषाय-त्याग तथा सम्यग्दर्शन आदि तात्विक विषयों पर प्रकाश डाला। उनके उपदेश से प्रभावित होकर मरुभूति ने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। विषयों के प्रति वैराग्य होने के कारण उसकी कामवासना मन्द होने लगी। यह देखकर उसकी पत्नी वसुन्धरा उससे विमुख होने लगी। मिथ्यादृष्टि आत्माओं को भौतिक सुखों के प्रति अधिक आकर्षण होता है। जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित व्यक्ति की जीभ में कड़वाहट होने के कारण मीठी वस्तु भी उसे कड़वी लगती है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि वाले व्यक्ति को वैराग्य जैसी उत्तम वस्तु भी अच्छी नहीं लगती है। उसे राग-रंग का आनन्द प्राप्त करने की लालसा होती है। मरुभूति धर्मध्यान में समय व्यतीत कर रहा था और इधर कमठ अपने छोटे भाई की पत्नी के प्रति आकर्षित हो गया, उसके साथ मजाक-मश्करी करने लगा।
धीरे-धीरे उन दोनों का आकर्षण शारीरिक सम्बन्ध तक पहुँच गया। विषय-वासना के आकर्षण में पड़कर मनुष्य अपना हित-अहित देखता नहीं। इहलोक और परलोक को भी भूल जाता है। एक दिन कमठ की पत्नी अरुणा ने उन दोनों की पाप लीला अपनी आँखों से देख ली और उसने मरुभूति से इस सम्बन्ध में सच्चाई का पता लगाने की प्रेरणा की। मरुभूति ने एक रात वेष बदलकर गहरी निद्रा का ढोंग कर वसुन्धरा और कमठ की पापवृत्ति को प्रत्यक्ष देख ली। यह देखकर उसे बहुत बड़ा आघात पहुँचा। उसने सोचा कि कमठ तो मेरी बात नहीं मानेगा। अतः राजा अरविन्द को उसने सारी बात सच-सच बता दी। उत्तम पुरोहित कुल में ऐसी पाप-लीला का ताण्डव हो रहा है, यह जानकर राजा अरविन्द क्रोध से आग-बबूला हो उठा। कोई दूसरा व्यक्ति ऐसी पाप लीला का आचरण करने की हिम्मत न कर सके, इस आशय से उसने कमठ का मुँह काला कर उसे गधे पर बिठाकर सारे गाँव में घुमाने का आदेश दिया।
राजा के आदेश का पालन करते हुए कमठ के सारे अंगों को विविध रंगों से रंगकर उसे गधे पर बिठाकर ढोल बजाते हुए सारे नगर में घुमाकर नगर के बाहर निकाल दिया गया। कमठ इस प्रकार तिरस्कृत होने के कारण शिव तापस के पास जाकर तापस बन गया। यह सुनकर मरुभूति को अत्यन्त दुःख हुआ कि मेरे ही कारण मेरे बड़े भाई तिरस्कार के पात्र बने। अतः इस समय वे आर्त्तघ्यान में होंगे, असमाधि और अशान्ति में उनके दिन व्यतीत हो रहे होंगे, उन्हें ऐसा लगता होगा कि छोटे भाई ने राजा से मेरी शिकायत की, इसीलिए राजा ने मुझे दण्डित किया। वह मेरा भाई नहीं, दुश्मन है। इस प्रकार उन्हें कषाय हो रहा होगा। अतः अपने बड़े भाई के पास जाकर क्षमा याचना करनी चाहिए। अतः मरुभूति ने राजा से इसके लिए आज्ञा मांगी, परन्तु राजा ने आज्ञा नहीं दी। राजा की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए मरुभूति जंगल में कमठ के पास क्षमा माँगने पहुँच गया। मरुभूति को धन्यवाद है कि ‘स्वयं निरपराध होते हुए भी एक अपराधी से क्षमा माँगने गया।’
जंगल में शिवकुलपति के आश्रम में तापसी दीक्षा लेकर तापस बने हुए कमठ ने मरुभूति को अपने पास आते हुए देखा तो उसकी आँखों में क्रोध की ज्वाला धधकने लगी। जिस समय मरुभूति कमठ के पैरों में गिरकर उससे क्षमा मांग रहा था, उसी समय अपने पास पड़े हुए पत्थर की शिला उठाकर कमठ ने मरुभूति के सिर पर पटक दी मरुभूति का सिर फट गया, यह देखकर उसे कषाय तो न आया, परन्तु ‘‘हाय दुःख’’ ऐसा आर्तध्यान होने के कारण वह मरकर हाथी के भव में उत्पन्न हुआ। मरुभूति की हत्या करके भी कमठ का क्रोध शांत नहीं हुआ। प्रतिशोध की भावना से जलते उसने मरुभूति के मृत शरीर को ठोकर मारकर पर्वत से नीचे गिराया और मन में संकल्प किया – ‘इसी दृष्ट ने मुझे अपमानित करवाया है। अगले जन्म में फिर इसका बदला लूंगा।’ बस ! वैर की यह परंपरा पार्श्वनाथ के भव तक चलती है।
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