
चौथा भव किरणवेग और कालदारुण सर्प
देवलोक का आयुष्य पूर्ण होने पर मरुभूति का जीव महाविदेह क्षेत्र के सुकच्छ विजय में स्थित वैताढ्य पर्वत की तिलकपुरी नगरी में विद्युद्वेग राजा और तिलकावती रानी की कुक्षि में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। युवावस्था आने पर पद्मावती नामकी कन्या के साथ विवाह कर उसका राज्याभिषेक कर विद्युद्वेग ने दीक्षा अंगीकार की तथा उत्कृष्ट साधना करते हुए मोक्ष को प्राप्त किया।
किरणवेग राजा को ‘‘धरणवेग’’ नामक पुत्र हुआ। एक बार श्रीविजयभद्राचार्य का वहाँ पदार्पण हुआ। उनकी एक ही देशना सुनकर किरणवेग राजा वैराग्यवासित बन गया। उसने तुरन्त अपने पुत्र धरणवेग को राज्य सौंपकर किरणवेग और पद्मावती रानी ने दीक्षा ग्रहण की।
मुनि किरणवेग घोर तपश्चर्या करते हुए जंगलों और पहाड़ों में विचरण करने लगे। कमठ का जीव पूर्व भव के नरकायुष्य को पूर्ण कर उसी जंगल में कालदारुण सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने मरुभूति के जीव किरणवेग को डँस लिया। मुनि के सारे शरीर में विष फैल गया। भले ही दोनों के शरीर बदल गए, परन्तु एक की समता और दूसरे का द्वेष बढ़ता गया। किरणवेग मुनि देहध्यान छोड़कर धर्मध्यान में स्थिर हो गए। अतः उनका शरीर वेदनारहित हो गया। शरीर में भले ही वेदना होती हो, परन्तु आत्मा और मन पर उसकी कोई असर नहीं होती है, जिसके कारण वेदना से जरा भी आर्तध्यान का भाव नहीं आता है।
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