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पाँचवां भव देव और नारक

मरुभूति का जीव किरणवेग मुनि शुभध्यान में मृत्यु प्राप्त कर बारहवें देवलोक में देव बना और सर्प मरकर नरक में गया। एक की आत्मा ने असंख्य वर्षों तक दैवीक सुखों का उपभोग किया जब कि दूसरे की आत्मा असंख्य वर्षों तक नरक की भयंकर यातना और कष्ट का शिकार बनी। एक जीव को शुभकर्म का बंध चलता है तो दूसरे जीव को अशुभकर्म का अनुबंध चलता है। जीव जब तक सावधान नहीं होता, तब तक अशुभ अनुबंध चलता ही रहता है। अतः हमें सावधान होने की खास जरूरत है। अशुभ अनुबंधों को तोड़ने के लिए पंचसूत्र में बताएँ गए दुष्कृतगर्हा आदि उपाय का प्रयोग करना चाहिए।

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