
सुवर्णबाहु की दीक्षा
एकबार सुरपुर नगर के बाहर जगन्नाथ तीर्थंकर परमात्मा पधारे थे। वहाँ सुवर्णबाहु समवसरण में देशना सुनने गए। परमात्मा की वाणी सुनते-सुनते चक्रवर्त्ती सुवर्णबाहु को जातिस्मरण का ज्ञान होने के कारण पूर्वभव की स्मृति हुई कि मैंने पूर्व भव में क्षेमंकर तीर्थंकर प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की थी। यह स्मरण होने से उनका हृदय हर्षविभोर हो गया। वैराग्यवासित होकर वे राजमहल में वापस आए, उसके बाद पुत्र का राज्याभिषेक कर प्रभु के पास गए।
प्रभु ने दीक्षा देकर उन्हें स्थविरों को सौंपा। सुवर्णबाहु मुनि अल्पकाल में ही शास्त्राध्ययन कर गीतार्थमुनि बन गए। प्रभु से आज्ञा प्राप्त कर वे सिंह के समान अकेले विहार करने लगे।
उसके बाद वीसस्थानक की आराधना करते हुए ‘‘सवि जीव करुं शासन रसी…’’ की श्रेष्ठ भावना उत्पन्न होने पर अर्थात् सभी जीवों से तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर उसे निकाचित किया।
सुवर्णबाहु मुनि विहार करते हुए क्षीरगिरि पर पहुँचे। दूसरी ओर कमठ नरक का आयुष्य पूर्ण कर उसी गिरि में सिंह के भव में उत्पन्न हुआ।
राजर्षि सुवर्णबाहु एक शिला पर ध्यानस्थ खड़े थे। उन्हें देखते ही क्रोधाग्नि से जलता हुआ सिंह छलांग मारकर मुनि के पास पहुँचा और अपने दाँतों और नाखूनों से उनका शरीर फाड़ डाला। मुनिश्री ने समता भाव को धारण करते हुए वैमानिक देवलोक में गमन किया।
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