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पार्श्वकुमार की दीक्षा

एक बार पार्श्वकुमार बसन्त ऋतु में प्रभावती के साथ नगर के उद्यान में गए थे। वहाँ घूमते हुए वे एक महल में आए और दीवाल पर बने हुए नेमिनाथ और राजीमती के चित्रों पर उनकी दृष्टि पड़ी। जिस चित्र में बारातियों को खिलाने के लिए लाए गए पशुओं को देखकर नेमिनाथ रथ को वापस ले जा रहे हैं। वह चित्र देखते ही पार्श्वकुमार के अन्दर वैराग्यभाव प्रबल बन गया। वैसे तो उनके अन्दर जन्म से ही वैराग्य भाव होता है, क्यों कि वे स्वयंसंबुद्ध होते है। फिर भी ऐसा कहा जाता है कि किसी निमित्त को देखकर वैराग्यभाव तीव्र बन जाता है। अतः उपाध्याय वीरविजयजी ने कहा है- ‘चित्रामण जिन जोवतां वैराग्ये भीना…’ उसके बाद लोकान्तिक देवों ने आकर प्रभु से निवेदन किया- ‘हे प्रभु! धर्मतीर्थ का प्रवर्त्तन करें।’ तब प्रभु ने परिवार से दीक्षा लेने की बात कहीं। यह सुनते ही प्रभावती पछाड़ खाकर गिर पड़ी और रोने लगी। माता-पिता भी दुःखी हो गए। पार्श्वकुमार ने सबको समझाया और एक वर्ष तक वर्षी दान देकर प्रभु ने पोष कृष्ण नवमी के दिन से अट्ठम तप प्रारम्भ किया।
पोष कृष्ण एकादशी के शुभ दिन प्रभु ने घर का त्याग कर विशाला नामक शिबिका में बैठकर गीत-वाद्य सहित विशाल जुलूस के साथ काशी नगरी के बाहर आश्रमपद उद्यान में आए। वहाँ शिबिका से उतरकर अशोकवृक्ष के नीचे अपने वस्त्राभूषण उतारकर और अपने हाथ से पंचमुष्टि लोच कर 300 मुनियों के साथ 30 वर्ष की युवावस्था में चार महाव्रत अंगीकार किये।
पू. उपाध्याय वीरविजयजी महाराज ने पूजा की ढाल में कहा है ‘अट्ठम तप भूषण तजी रे उच्चरे महाव्रत चार, पोष बहुल एकादशीए, त्रण सया परिवार नमो….’ पौष कृष्ण द्वादशी के दिन धन्य सार्थवाह के यहाँ पारणा किया। प्रभु को पारणा कराकर सार्थवाह धन्यातिधन्य बन गया।
प्रभु विहार करते हुए कादंबरी नामक जंगल में आए। वहाँ कुंड नामक बहुत बड़ा सरोवर था। उसमें कमल खिले हुए थे। उसके पास में कलि नामक पर्वत था। प्रभु कुंड सरोवर के किनारे काउसग्ग मुद्रा में खड़े रहे।
वहाँ एक जंगली हाथी ने आकर सरोवर से अपनी सूँढ़ में पानी भरकर प्रभु का अभिषेक किया। प्रभु के चरणों में कमल के फूल चढ़ाये। वह हाथी मरकर देवगति में गया और वह स्थान कलिकुंडतीर्थ बन गया।
उसके बाद प्रभु ने कौस्तुभ वन में प्रवेश किया। वहाँ तीन दिन तक प्रभु ध्यानमग्न रहे। धरणेन्द्र ने सर्प का रूप धारण कर अपने फणों से प्रभु के ऊपर छत्र किया। इस प्रकार वहाँ धरणेन्द्र ने अहिछत्रानगरी की स्थापना की।

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