अाक्रमणकाल से गुजरता महातीर्थ
भक्तजनों की मनोवांछना पूर्ण कराने वाले इस तीर्थ का प्रभाव सत्वर वृद्धिगत हुअा। सं.1368 में अल्लाउद्दीन की सेना ने कान्हडदेव का वध किया अौर जालोर पर विजय प्राप्त की। इस अाक्रमण काल में जीरावला तीर्थ को भारी क्षति हुई। अाक्रमणकारियों को अपने कुकर्म का भयानक परिणाम भुगतना पडा। जालोर के सूबा में इस कृत्य के कारण उपद्रव हुअा। दीवान से विचारविमर्श कर सुबा मंदिर पहुँचा, प्रतिमाजी के समक्ष क्षमायाचना कर उसने अपना सिर मुंडवाया, जिससे वह उपद्रवमुक्त बना। इसके पश्चात् इस क्षेत्र में मस्तकमुंडन की प्रथा का प्रारंभ हुअा, एेसा कहा जाता है।
पन्द्रहवी शताब्दी में मांडवगढ के बादशाह अालमशाह के मंत्री एवं श्री झांझणश्रेष्ठी के सुपुत्र संघवी श्री अाल्हराज ने अपनी संपत्ति का इस तीर्थ में विनियोग कर उसे अक्षय बना दिया। उत्तुंग तोरण, प्रचंड स्तंभ एवं मनोरम चंदरवा से विभूषित रंगमंडप ने इस जिनप्रासाद के सौंदर्य में वृद्धि की।
मुस्लिम अाक्रमणों से इस प्रतिमा को सुरक्षित रखने के लिए श्रीसंघ ने दीर्घदृष्टि का उपयोग किया। गर्भगृह की बाहरी दिवालों में बायीं तरफ श्री जीरावला पार्श्वनाथ एवं दादा पार्श्वनाथ को बिराजमान किया। मूलनायक का स्थान श्री नेमिनाथ प्रभु को दिया गया। यह परिवर्तन कब हुअा इसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता है।
वर्तमान काल में इस तीर्थ का प्रभाव विश्वविख्यात है। तीर्थक्षेत्रों में अद्भुत चमत्कारों का अनुभव भक्तजन करते हैं। सर्वत्र प्रतिष्ठा, शांतिस्नात्र अादि शुभ अवसरों पर श्री जीरावला पार्श्वनाथजी के मंत्राक्षरों का अालेखन किया जाता है, यह सत्य प्रभुजी के प्रभाव की साक्षी देता है।
भावुक नित्य प्रातः रात्रिक प्रतिक्रमण के तीर्थवंदना सूत्र में इस तीर्थ की वंदना करते हैं, प्रतिवर्ष कार्तिकी पूनम, चैत्री पूनम एवं भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन यहाँ मेले का अायोजन होता है।
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