महामहिमश्री जीरावला दादा

सामान्यतः श्री सिद्धाचलजी, श्री गिरनारजी, श्री अाबूजी, श्री अष्टापदजी एवं श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थों की गणना महातीर्थों के रुप में की जाती है। श्री जीरावला पार्श्वनाथ तीर्थ भी इन महातीर्थों की पंक्ति में ही बिराजमान है। केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में कहीं भी श्री जिनेर्श्वर प्रभु के मंदिर की प्रतिष्ठा सुसम्पन्न कराते समय श्री जीरावला पार्र्श्वनाथ परमात्मा का नाम मंत्र ’’ॐ र्ह्रीं श्रीँ श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा’’ प्रभु के पृष्ठ भाग की दीवार पर लिखा जाता है। तत्पश्चात् ही किसी भी श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिष्ठा की जाती है। इतना ही नहीं बल्कि अंजनशलाका प्राणप्रतिष्ठा विधान में सुवर्ण जल को अभिमंत्रित करते समय भी श्री जीरावला प्रभु का स्मरण अावश्यक है। इस प्रकार श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान का प्रत्येक मंदिर तथा उसकी प्रतिष्ठा विधि से अविच्छिन्न संबंध रहा है। प्रभु के असीम प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव कर पूर्वसूरियों ने ’जीरावला दादा’का पुण्यस्मरण करने हेतु ’’नामलेखन’’की पुण्यपरंपरा का सृजन किया है, जो अाज भी अक्षुण्ण है।
तीर्थंकर मालिका में पुरुषादानीय विशेषण से विभूषित श्री पार्श्वनाथजी की यह विशेषता है कि उनकी अनेक प्रतिमाअों का निर्माण स्वयं प्रभुजी के जन्म के पूर्व ही सुसंपन्न हुअा था। बाइसवें तीर्थंकर का स्थान ग्रहण करनेवाले श्री नेमिकुमार ने पार्र्श्वप्रतिमा के प्रक्षाल जल के प्रभाव से यादवों पर अाक्रमित जरा का निवारण करवाया था।
800 वर्ष पूर्व जैनाचार्य श्री मेरुतुंगसूरिजी महाराजा द्वारा हस्त लिखित इस भोजपत्र के अनुसार – जब भगवान श्री पार्श्वनाथ विहाररत थे, उस समय उनके प्रथम गणधर श्री शुभस्वामीजी के सदुपदेश से अर्बुदाचल की तलहटी में स्थित रत्नपुर नगर के जिनधर्मपरायण चन्द्रयशा राजा ने इस प्रतिमा का निर्माण दूध-बालु से करवाकर उन्हीं के हाथों अंजन-प्रतिष्ठा करवाई थी। कालांतर में भूमिगत हुई इस प्रभावसंपन्न प्रतिमा को वरमाण के धांधल श्रावक ने स्वप्नादेश से जीरापल्ली समीपस्थ सिंहोली नदी किनारे देवत्री गुफा में से संवत 1109 में प्रकट किया। तत्पश्चात् वि.सं. 1191 में अाचार्य श्री अजितदेव (वादीदेव) सूरीर्श्वरजी के हाथों से शिखरबद्ध प्रासाद में मूलनायक के रुप में प्रतिष्ठा संपन्न हुई। समस्त विर्श्व कल्याणकारक कल्पवृक्ष मानों फिर से नवपल्लवित बना। इसी मंगल स्थान से जीरापल्ली गच्छ की उत्पत्ति भी हुई थी।

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