पाताल से प्रगटे प्रभुजी

वर्तमान काल में जिसे वरमाण कहा जाता है एवं प्राचीन काल में जो ब्रह्माण नाम से विख्यात था, उस स्थान में रहनेवाले एक वृद्धा के पास एक गाय थी। गाय प्रतिदिन सिंहोली नदी के तट पर स्थित देवत्री की गुफा में एक विशिष्ट स्थान पर अपने दूध का अभिषेक करती थी। वृद्धा ने यह बात गाँव के धांधल नामक श्रेष्ठी से कही। अधिष्ठायक देव ने स्वप्न में उस स्थान पर एक मनोहर जिनबिंब के अस्तित्व का संकेत दिया।
दूसरे दिन प्रातः इस प्रतिमाजी के प्रगटीकरण के लिए ब्रह्माण ग्राम का संघ एकत्रित हुअा। निकटवर्ती जीरापल्ली ग्राम के कई लोग भी यहाँ अा गए। भूगर्भ से श्री पार्र्श्वप्रभु की मनोहारी प्रतिमा प्रगट हुयी। परमात्मा का अनुपम सौंदर्य देखकर समस्त लोग भावविभोर हो गये। इस प्रतिमा पर ब्रह्माण एवं जीरापल्ली गाँ वों के संघों ने अपना अधिकार जताया, अब कौनसा गाँव इसे अपने गाँव ले जाएगा? इस बात पर विवाद हुअा।
इस विवाद का निर्णय एक वृद्ध पुरुष ने किया। दोनों स्थानों से एक एक बैल लाया गया, उन्हें एक बैल गाडी से बाँधा गया। बैलगाडी में प्रभुजी बिराजमान हुए। गाडी जीरापल्ली के दिशा में चल दी। जीरापल्ली में एक भव्य प्रवेश महोत्सव संपन्न हुअा। श्री वीरप्रभु के जिनप्रासाद में मूलनायक का स्थान नूतन परमात्मा की प्रतिमा को दिया गया। परमात्मा का प्रागट्य वि.सं.1109 में हुअा। श्रीयुत धांधल श्रेष्ठी ने एक भव्य तथा उत्तुंग जिनालय का निर्माण किया। इस नूतन जिनालय में वि.सं.1191 में मंडार के पूज्य अाचार्य श्री अजितदेवसूरिजी ने प्रभुजी को बिराजमान किया।

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