प्राचीनालोक में जीरावला तीर्थ
अर्बुदाचल के शिलालेखों से यह भी प्रमाणित हो चुका है, कि श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा स्वयं ने अर्बुदाचल की स्पर्शना की थी। इस दौरान जीरापल्ली तीर्थ एक प्रतिष्ठा संपन्न तीर्थ की ख्याति पा चुका था। सकल तीर्थ वंदना स्तोत्र में भी ’’जीरावलो ने थंभण पास’’ पंक्ति द्वारा तीर्थ का महिमागान किया गया है।
अन्योन्य शिलालेखों, प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाअों के प्रमाणालोक में अनेक सदियों में इस महातीर्थ का जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा विधान होने का तथ्य उजागर हुअा है। विक्रम की चौथी, अाठवीं, बारहवीं एवं सोलहवीं सदी में जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठाएँ संपन्न हुई थी अौर अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी में भी व्यापक तौर पर जीर्णोद्धार एवं निर्माण कार्य होने के प्रबल-प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
पुनः पुनः जीर्णोद्धार का एक महत्त्वपूर्ण कारण मुगलाई अाक्रमण रहा था। अार्यावर्त की पश्चिमी सीमा का मरुधर प्रांत होने से विदेशी धर्मांध शक्तिअों के अाक्रमणों से सर्वप्रथम नुकसान हमारे तीर्थों एवं मंदिरों को सहना पडा था। धर्मांधों ने मंदिर ध्वस्त किए, मूर्तियाँ खंडित की किंतु जन-जन के हृदय की अास्था को वे ध्वंस न कर सके। इसी के परिणाम स्वरुप सर्वस्व की न्यौछावरता द्वारा पुनः पुनः तीर्थ निर्माण होता रहा। हमारे पूर्वजों ने पूर्वाचार्यों के सदुपदेश से जो कुछ भी सीमित साधन-सामग्री उपलब्ध थी उसे अपनी श्रद्धा के साथ सम्मिलित कर भगवान की प्रतिमा एवं धाम की महिमा अक्षत रखने का भगीरथी पुरुषार्थ किया। उसी के बल अाज भी हमें ये परमात्मा संप्राप्त हो रहे हैं।
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