ध्रुवपद रामी हो स्वामी माहरा…
(राग : सारंग-रसीअानी देशी)
(राग : मारो मुजरो…/तुं प्रभु माहरो…/दिल दिया है…/युगोथी हुं पुंकारुं…)
ध्रुवपद रामी! हो स्वामी! माहरा, नि:कामी! गुणराय; सुज्ञानी
निजगुण कामी! हो पामी तुं धणी, ध्रुव अारामी! हो थाय, सु0.. ध्रुव0।।1।।
सर्वव्यापी कहे सर्व जाणगपणे, पर परिणमन स्वरूप; सु0
पर रूपे करी तत्त्वपणुं नहीं, स्वसत्ता चिद्रूप, सु0… ध्रुव0।।2।।
ज्ञेय अनेके हो ज्ञान अनेकता, जल भाजन रवि जेम; सु0
द्रव्य एकत्वपणे गुण एकता, निजपद रमता हो खेम, सु0… ध्रुव0।।3।।
पर क्षेत्रे गत ज्ञेयने जाणवे, परक्षेत्रे थयुं ज्ञान; सु0
अस्तिपणुं निज क्षेत्रे तुमे कह्युं, निर्मलता गुण मान, सु0… ध्रुव0।।4।।
ज्ञेय विनाशे हो ज्ञान विनश्वरु, काल प्रमाणे रे थाय; सु0
स्वकाले करी स्वसत्ता सदा, ते पर रीते न जाय, सु0… ध्रुव0।।5।।
परभावे करी परता पामतां, स्वसत्ता थिर ठाण; सु0
अात्म चतुष्कमयी परमां नहि, तो किम सहुनो रे जाण, सु0… ध्रुव0।।6।।
अगुरुलघु निज गुणने देखतां, द्रव्य सकल देखंत; सु0
साधारण गुणनी साधर्म्यता; दर्पण जल दृष्टांत, सु0… ध्रुव0।।7।।
श्री पारस जिन पारस रस समो, पण ईहां पारस नाहि; सु0
पूरण रसीअो हो निजगुण परसन्नो, ‘अानंदघन’ मुजमांहि, सु0… ध्रुव0।।8।।
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