मोहन! मुजरो लेजो राज…

(राग : मारो मुजरो ल्यो…/वीरजिणंद जगत उपकारी…)

मोहन! मुजरो लेजो राज! तुम सेवामां रहेशुं, तुम भक्ति अमे करशुं!
वामानंदन जगदानंदन, जेह सुधारस खाणी;
मुखने मटके लोचन लटके, लोभाणी इन्द्राणी… मोहन0।।1।।
भवपट्टण चिहुं दिशि चारे गति, चौराशी लख चउटा;
क्रोध मान माया लोभादिक, चोवटिया अति खोटा… मोहन0।।2।।
मिथ्या महेतो कुमति पुरोहित, मदन सेनाने तोरे;
लांच लई लख लोक संतापे, मोह कंदर्पने जोरे… मोहन0।।3।।
अनादि निगोदने बंदीखाने, तृष्णा तोपे राख्यो;
संज्ञा चारे चोकी मेली, वेद नपुंसक अांक्यो… मोहन0।।4।।
भवस्थिति कर्म विवर लई नाठो, पुण्योदय पण वाध्यो;
स्थावर विकलेन्द्रियपणुं अोलंगी, पंचेन्द्रियपणुं लाध्यो… मोहन0।।5।।
मानवभव अारजकुल सद्गुरु, विमल-बोध मल्यो मुजने;
क्रोधादिक सहु शत्रु विनाशी, तेणे अोलखाव्यो तुजने… मोहन0।।6।।
पाटणमांहे परम दयालुं, जगत विभूषण भेट्या;
सत्तर बाणुं शुभ परिणामे, कर्म कठिन बल मेट्या… मोहन0।।7।।
समकित गज उपशम अंबाडी, ज्ञान कटक बल कीधुं;
खिमाविजय ‘जिन’ चरण रमण सुख, राज पोतानुं लीधुं… मोहन0।।8।।

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