पार्श्व प्रभुजी रे
Post by: arihant in Shri Parshwanath Stavan
पार्श्व प्रभुजी रे, विनति मोरी मानना. (अंचली)
अति दु:ख पाया मैंने, मोह के राज में (2);
लाख चोराशी रे, योनि में जहां घूमना। पार्श्व.1
फंस रहा हुं मैं तो, कर्मो के घेर में (2);
चार गति के रे, दु:खोको बडे झीलना। पार्श्व.2
भटक रहा हुं प्रभु, अंधेरी रेन में (2);
ज्योति जगादो रे, टले जयुं मेरा रुलना। पार्श्व.3
सम्यग् दर्शन, ज्ञान के राज में (2);
चरण मिलादो रे, स्वामिजी नहीं भूलना। पार्श्व.4
अात्म कमल में जिन रहो दिल में (2);
लब्धिसूरि का रे, हटा दो जग झुलना। पार्श्व.5
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