प्रभु जगजीवन जगबंधु रे…
(राग : तारी मुद्राए मन मोह्युं रे…/सुणजो साजन संत…)
प्रभु जगजीवन जगबंधु रे, सांई सयाणो रे…!
तारी मुद्राए मन मोह्युं रे, जूठ न जाणो रे…!
तुं परमातम! तुं पुरुषोत्तम! वाला मारा तुं परब्रह्म स्वरुपी रे;
सिद्धि साधक सिद्धांत सनातन, तुं त्रय भाव प्ररुपी रे… सांई0।।1।।
ताहरी प्रभुता त्रिहु जगमांहे, वा0 पण मुज प्रभुता मोटी रे;
तुज सरीखो माहरे महाराजा, माहरे नहि कांई खोट रे… सांई0।।2।।
तुं निरद्रव्य परमपदवासी, वा0 हुं तो द्रव्यनो भोगी रे;
तुं निरगुण हुं तो गुणधारी, हुं करमी तुं अभोगी रे… सांई0।।3।।
तुं तो अरुपी ने हुं रुपी, वा0 हुं रागी तुं नीरागी रे;
तुं निरविष हुं तो विषधारी, हुं संग्रही तुं त्यागी रे… सांई0।।4।।
ताहरे राज नथी कोइ एके, वा0 चौद राज छे माहरे रे;
माहरी लीला अागल जोतां, अधिक शुं छे ताहरे रे… सांई0।।5।।
पण तुं मोटो ने हुं छोटो, वा0 फोगट फूल्ये शुं थाय रे;
खमजो ए अपराध अमारो, भक्ति वशे कहेवाय रे… सांई0।।6।।
श्री शंखेश्वर वामानंदन, वा0 उभा अोलग कीजे रे;
रुपविबुधनो ‘मोहन’ पभणे, चरणनी सेवा दीजे रे… सांई0।।7।।
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