सुणो पार्श्व जिनेश्वर स्वामी…

(राग : ए मेरे वतन के लोगो…/तुम्हें सूरज कहुँ या चंदा…)

सुणो पार्श्वजिनेश्वर स्वामी!, अलवेसर अंतरयामी,
हुं तो अरज करुं शिरनामी, प्रभु साथे अवसर पामी;
हो स्वामी! मुजने तारो… तारो प्रभुजी! तारो,
मोहे तारो प्रभुजी! तारो, भवजलधि पार उतारो रे… हो स्वामी0।।1।।
मुजने भवसागरथी तारो, चिहुं गतिना फेरा वारो;
करुणा करी पार उतारो, ए विनंति मनमां धारो… हो स्वामी0।।2।।
संसारे सार न कांई, साचो एक तुं ही सखाई;
ते माटे करी थिरताई, में तुज चरणे लय लाइ… हो स्वामी0।।3।।
तारक तुं जगत प्रसिद्धो, पहेले पण तें जस लीधो;
तुज सेवकने शिवसुख दीधो, एक मुज अंतर शुं कीधो?… हो स्वामी0।।4।।
ईम अंतर ते न करवो, सेवकने शिवसुख देवो;
अवगुण पण गुण करी लेवो, हेत अाणी बांह्य ग्रहेवो… हो स्वामी0।।5।।
तारी सेवक चूके कोई टाणे, पण साहिब मनमां न अाणे;
निज अंगीकृत परिमाणे, पोतानो करी जाणे… हो स्वामी0।।6।।
तुं त्रिभुवननाथ कहेवाय, ईम जाणीने जिनराय;
द्यो चरण सेवा सुपसाय, जिम ‘हंसरतन’ सुख थाय… हो स्वामी0।।7।।

Leave a comment