सूरज मंडण पाश्वजिणंदा…
(राग : तुं प्रभु मारो…/वैष्णवजन तो तेने…/संभवजिनवर विनंति…)
सूरज मंडण पाश्वजिणंदा, अरज सुणो टालो दु:ख दंदा;
तुं साहिब! हुं छुं तुज बंदा, प्रीत बनी जैसी कैरव चंदा… सू0।।1।।
तुज शुं नेह नहि मुज काचो, घणहि न भांजे हिरो जाचो;
देतां दान ते कांई विमासो, लाग्यो मुज मन एहि तमासो… सू0।।2।।
केडे लाग्यो ते प्रभु! केड न छोडे, दीयो वांछित सेवक कर जोडे;
अक्षय खजानो प्रभु! तुज नवि खूटे, हाथ थकी तो शुं नवि छूटे?… सू0।।3।।
जो खीजमतमां खामी दाखो, तो पण निज जाणी हित राखो;
जेने दीधुं छे प्रभु! तेहिज देशे, सेवा करशे ते फल लेशे… सू0।।4।।
धेनु कूप अाराम स्वभावे, देतां देतां प्रभु संपत्ति पावे;
तिम मुजने प्रभु जो गुण देशो, तो जगमां जश अधिको वहेशो… सू0।।5।।
अधिकुं अोछुं प्रभु! किस्यूं कहावो, जिम तिम सेवक चित्त मनावो;
मांग्या विना तो माय न पीरसे, एह उखाणो साचो दिसे… सू0।।6।।
एम जाणीने प्रभु विनंती कीजे, मोहनगारा! मुजरो लीजे;
‘वायकजश’ कहे खमीयेअासंगो, दीअो शिवसुख धरी अविहड रंगो… सू0।।7।।
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