तारी मूरतिनुं नहि मूल रे…

(राग : तारी मुद्राए मने मोह्युं रे…)

तारी मूरतिनुं नहि मूल रे, लागे मने प्यारी रे…!
तारी अांखडीए मन मोह्युं रे, जाउं बलिहारी रे…!! लागे0।।1।।

त्रण भुवननुं तत्त्व लहीने, निर्मल तुं ही निपायो रे;
जग सघलो निरखीने जोतां, तारी होडे को नहि अायो रे… लागे0।।2।।

त्रिभुवन तिलक समोवड ताहरी, सुंदर सुरति दीसे रे;
कोटि कंदर्प सम रुप निहाली, सुर-नरना मन हींसे रे… लागे0।।3।।

ज्योति स्वरुपी तुं जिन दीठो, तेने न गमे बीजुं कांई रे;
जिहां जईए त्यां पूरण सघले, दीसे तुंही ज तुंही रे… लागे0।।4।।

तुज मुख जोवाने रढ लागी, तेने न गमे घरनो धंधो रे;
अाल-पंपाल सवि अलगी मूकी, तुजशुं मांड्यो प्रतिबंधो रे… लागे0।।5।।

भव-सागरमां भमतां भमतां, प्रभु पार्श्वनो पाम्यो अारो रे;
‘उदयरत्न’ कहे बांह ग्रहीने, सेवक पार उतारो रे… लागे0।।6।।

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