विमलवर सकलगुण-रयणायरू…

(राग : सांभलो कलश जिन…/तार मुज तार मुज…)

विमलवर सकलगुण-रयणायरू, पास सुखसागरू दरिस पायो;
सहज अानंद सुखकंद अति उल्लस्यो, एेन जिनवचन सुख चेन अायो… ।।1।।
शुद्धअनिदान तुझ ध्यान गुण ज्ञानथी, मुझ उपादान प्रभुता प्रकाशी;
विकट मिथ्यात्वनी भ्रांति निकटे नहि, दूर रही लौल्यता दीनदासी… ।।2।।
छेक सुविवेक प्रभु! नेक नजरे करी, निरखतां दासना दुरित जावे;
तरिण-किरणे करी कमल विकसित थई, बहल परिमल यथा प्रगट थावे… ।।3।।
एक मुज टेक अतिरेक गुण उल्लसी, तुज विना अवर नवि चित्त चाहुं;
एह परतीत विधि नीति त्रिकरण थकी, देव तुम्ह सेव भवे-भवे अाश हुँ… ।।4।।
दीपनिशि द्वीप भवसिंधुमां बूडतां, कल्पतरु जेम थले अनल शीते;
तपति तरस्यो सुधापान जिम उल्लसे, तेहथी अधिक तुम्ह दरिसन प्रीते… ।।5।।
सिद्धसुख अाशिका भ्रांति निष्काशिका, जिहां थकी शिर धरी अाण तोरी;
अपर परिणति गई अाप परिणति भई, ज्ञान-अनुभव क्रिया दोर जोरी… ।।6।।
सहज भक्ति करी मुगति होय कर्मनी, तेहनो हेतु प्रभु पाससामी;
कुंवर अर्श्वसेन नृप मात वामातणो, परम अानंद काम अकामी… ।।7।।
चित्तमां राखीये योग्यता गुण थकी, दासने अापनो लेखवीजे;
‘ज्ञानविमलादि’ गुण सुजस महोदय हुवे, भेदना भेद एकतान कीजे… ।।8।।

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