ये अखियाँ दरिशन की है प्यासी…

(राग : तुम दरीशन भले पायो…/मैं तुलसी तेरे अांगन की…)

ये अखियाँ दरिशन की है प्यासी, ये अखियाँ0
प्यास बुझावो… प्यास बुझावो… मेरे अखियण की…! ये अखियाँ0

पुरिषादानी पार्श्व तुमारी, सुरनर जनता दासी;
अाशा पूरण तुं अवनितल, सुरतरूने संकासी… अखियाँ0।।1।।

निरागीशुं राग करंता, होवत जगमां हांसी;
एक पखो जे नेह चलावे, दीअो तेहने शाबाशी… अखियाँ0।।2।।

अजर अमर अकलंक अनंतगुण, अाप भये अविनाशी;
कारज सकल करी सुख पायो, अब क्युं होत उदासी… अखियाँ0।।3।।

तुं पुरुषोत्तम परम पुरुष है, तुं जग में जितकासी;
जगथी दूर रह्यो पण मुज चित्त, अंतर क्युं कर जासी?… अखियाँ0।।4।।

वामानंदन वंदन तुमचा, करत है शुभ मति वासी;
‘ज्ञानविमल’ प्रभु चरण पसाये, समकित लील विलासी… अखियाँ0।।5।।

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